MIME-Version: 1.0 Content-Type: multipart/related; boundary="----=_NextPart_01D11408.C2E4BF40" This document is a Single File Web Page, also known as a Web Archive file. If you are seeing this message, your browser or editor doesn't support Web Archive files. Please download a browser that supports Web Archive, such as Windows® Internet Explorer®. ------=_NextPart_01D11408.C2E4BF40 Content-Location: file:///C:/2ECD12B9/Ranjeetkumartiwary.htm Content-Transfer-Encoding: quoted-printable Content-Type: text/html; charset="us-ascii"
=
Pr
atidhwani the Ec=
ho
A Peer-Reviewed International Journal of
Humanities & Social Science
=
ISSN: 2278-5=
264 (Online) 2321=
-=
93=
19 (Print)
=
Im=
pact Factor: 6.=
28 =
(Index=
Copernicus
International)
=
Volume-=
IV, Issue-II,
October 2015, Page No. 52-58
Published=
by Dept. of
Bengali, Karimganj College, Karimganj,
Assam, India<=
span
style=3D'mso-bidi-font-size:11.0pt;font-family:"Cambria","serif";mso-fareas=
t-font-family:
"Times New Roman";mso-bidi-font-family:Cambria;mso-bidi-language:BN-BD'>
=
&nb=
sp; =
Website=
: h<=
/span>ttp://www.thecho.in
हिन=
;्दू
धर्म के विशे=
359;
संदर्भ में=
)
Dr. Ranjeet
Kumar Tiwary
Assistant Professor,
Sanskrit Department, Women’s College, Silchar,
Assam
Abstract
Dharma is a philosophical concept of India. In <=
span
class=3DSpellE>Bharatiya Dharma or Hinduism include characteristics =
such
as truthfulness, nonviolence, spirituality, tolerance, ethics, self,
family-life, social life, humanity etc. Hinduism=
is
not just the religion but the real method of teaching the Self. =
D=
harma
which means a way of life based on universal values of humanism. Dharma implies a rich value-system. Values in
individual and social life cannot be understated. Without moral values a man
cannot achieve a higher position in the society. Society and even a nation
cannot be called a civilised without human valu=
es in
true sense of the term. As we all aware about Hinduism, it has number of ways=
to
proof the existence of Humanism depending on Sanskrit scriptures, mythology
etc. In the present paper, it has been tried to identify the concept and na=
ture
of Humanism in Sanskrit scriptures and mythology.
Key
words- Dharma, Hinduism, Humanism, Tradition, Unity, Values, God, Self, Nat=
ion
&nb=
sp;
धë=
2;्म
एवं मानववाद
विषय पर विचा=
352;
समकालीन
भारतीय समाज
में अत्यन्त
महत्वपूर्ण
प्रतीत होता
है शायद इसलि=
351;े
भी कि भारतीय
चिन्तन
परम्परा में
धर्म तथा मान=
357;ता
का अत्यन्त ह=
368;
घनिष्ट
संबन्ध है। धर्म का
तो विभिन्न
अर्थो में
प्रयोग हुआ ह=
376;
तथा ये प्रयो=
327;
कभी-कê=
9;ी
अत्यन्त
विविक्त
पदार्थों को
प्रस्तुत कर=
40;े
है।<=
span
lang=3DHI style=3D'mso-bidi-font-size:11.0pt;font-family:"Mangal","serif";
mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-fo=
nt-family:
Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI'>
भारतीय
संविधान में
भी धर्म पद का
प्रयोग किया
गया है किन्त=
369;
पद अपने समग्=
352;
अर्थ में
प्रयुक्त न ह=
379;
करके एकाङ्ग=
68;
अर्थ में
प्रस्तुत कि=
51;ा
गया है। परिणामतः इस
पद में एक
अर्थसंकोच ह=
76;
और इस अर्थसं=
325;ोच
के कारण पद
अपनी
अर्थवत्ता ख=
79;
देते हैं।
इस
प्रश्न का एक
पहलू यह भी है
कि धर्म को
जहां भारतीय
परम्परा का श=
348;्द
समझा जाता है
मानववाद को प=
358;्चिमी
परम्परा में
विकसित पद के
रूप में ग्रह=
339;
किया जाता है। य=
61;
दृष्टि मानत=
68;
है कि दोनो ही
पद अपनी – अपनी
सांस्कृतिक
परम्परा में
समान अर्थों =
325;ा
ग्रहण करते
हैं और समान
अर्थभूमि
होने के कारण
इनको एक ही
धरातल पर
विचार की दो
भिन्न सांस्=
25;ृतिक
दृष्टि के रू=
346;
में समझा जान=
366;
चाहिये। किन्तु
यह भी सत्य है
कि हिन्दू
धर्म जो
प्रकृति पूज=
66;
में विश्वास
करता है जिनक=
375;
भगवान नदियो=
06;, पहाडो, वृक्षों, सर्पों, चराचर
प्राणियों
आदि में भी
बसते है क्या
वे मानववादी
नहीं हैं ? उत्तर है =
span>– हैं, तो फिर हमारे
मन में परस्प=
352;
घृणा, भë=
1;
आदि क्यों ?
हिन=
;्दू
धर्म के विशे=
359;
संदर्भ में
मानववाद का व=
367;श्लेषन
करते हुए
प्रस्तुत शो=
43;-पत्र में
यह अध्ययन
करने की
चेष्टा की गय=
368;
है कि –<=
span
style=3D'mso-bidi-font-size:11.0pt'>
·
धर्म पद
के प्रयोग से
किन अर्थों क=
366;
ग्रहण होता ह=
376;
?
·
मानववाद
के प्रयोग से
गृहीत होने
वाली अर्थभू=
50;ि
क्या धर्म से
संबन्धित है ?
·
क्या दोन=
379;
ही पद
समानार्थक ह=
79;
सकते है ?
·
यदि दोनो=
306;
समान
अर्थभूमि के
पद नहीं हैं
तो क्या दोनो=
306;
एक दूसरे के
प्रति कोई
योगदान देकर =
313;से
और अधिक
मूल्यवान बन=
66;
सकते हैं ?
·
यदि ऐसा
संभव है तो उस=
2325;ी
रचना कैसे हो
सकती है ?
भक्=
;ति धर्म की
सामान्य
प्रकृति है।
दैवीय सî=
1;वस्ति
की प्राप्ति
के लिये भक्त अपने
इष्टदेव या द=
375;वी
की पूजा अर्च=
344;ा
करते हैं। उनकी
कामना एवं
विश्वास होता है कि पí=
0;जा-अर्चना क=
375;
माध्यम से ही वे
आध्यात्म-सुख, सì=
9;मति एवं अपने
को सुरक्षित
रख सकते हैं
&=
nbsp; हì=
7;रण्यगर्भः
समवर्तताग्ë=
2;े
भूतस्य जातः
पतिरेक आसीत=
81;।  =
; &n=
bsp;
=
&nb=
sp;
स
दाधार पतिरे=
25;
आसीत् कस्मै
देवाय हविषा
विधेम।।[1]
<=
span
lang=3DHI style=3D'mso-bidi-font-size:11.0pt;font-family:"Mangal","serif";
mso-bidi-language:HI'>यहाँ देव=
; कौन है ? उê=
0;्तर
प्राप्त होता है- हिरण्यगर्भ<=
/span> ही देव है,
ईश्वर है।
विष=
;्णुपुराण में कहा गया
है -
&=
nbsp; स
ईश्वरो
व्यष्टिसमषî=
1;टिरूपो
व्यक्तस्वरí=
0;पोsप्रकटस्=
57;रूपः।
&=
nbsp; सë=
2;्वेश्वरः
सर्वदृक्
सर्वविच्च
समस्तशक्तिæ=
7;
परमेश्वराखî=
1;यः।।=
=
[2=
]
श्र=
;ीमद्भगवद्ग=
68;ता
कहती है-
&=
nbsp; उê=
0;्तम: पुरुषस्=
40;्वन्यः
परमात्मेत्ë=
1;ुदाह्र्तः
&=
nbsp; यí=
9;
लोकत्रयमावì=
7;श्य
विभर्त्यव्ë=
1;यस्य
ईश्वरः।।[3=
]
अर्=
;थात्
इन दोनो से
अन्य ही है, जो तीनो लोको
मे प्रवेश
करके सबका
धारण-पí=
9;षण
करता है एवं
अविनाशी
परमेश्वर और
परमात्मा - इì=
0;
प्रकार कहा
गया है।
ईश्वरः
सर्वभूतानाæ=
6;
हृद्देशेsअर्जुन
तिष्ठति।
भî=
1;रामयन्सर्व=
349;ूतानि
यन्त्रारुढì=
6;नि
मायया।।[4]
श्वेताश्व=
2340;र
उपनिषद में
कहा गया है कि
प्रजापति ही
ब्रह्म है,
परमेश्वर की
स्वरूपता
अधोलिखित
मंत्र में स्=
346;ष्ट
रूप में
उच्चरित किय=
66;
गया है-
तदेवा&=
#2327;्निस्तदादि=
;त्यस्यस्तद=
81;वायुस्तद
चंद्रमा:।
तदेव
शुक्रं तद्
ब्रह्म
तदापस्त्प्ë=
2;जापतिः
।।=
=
[5=
]
अर्=
;थात्
वही अग्नि दे=
357;
है, वही सूर्=
351;
है, वही
चन्द्रमा है, वही शुक्=
352;
है, वही
ब्रह्म है, वही जल है, वही
प्रजापति है
क्योकि इस
जगत् का
रचयिता वही
प्रजापति है
और उसी में
उसका लय होता
है अतः वही
सर्वरूप है
उससे भिन्न
कुछ भी नहीं
है।<=
span
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mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-fo=
nt-family:
Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI'>
भाष्य करते
हुये आचार्य
शङ्कर ने कहा =
span>– तद्
ब्रह्म
हिरण्यगर्भì=
6;त्मा
तदापः स
प्रजापति वि=
52;ाडात्मा।
अर्थात् वही
ब्रह्म
हिरण्यगर्भ
स्वरुप है, वही जल है तथì=
6;
विराट् रूप
प्रजापति है।=
=
[6=
]  =
;
बृह=
;दारण्यक
उपनिषद् के
अनुसार
सृष्टि से सं=
342;र्भित
एक प्रसंग मे
मानव सृष्टि
विस्तार हेत=
69;
पुरुष वीर्य
की स्थापना क=
375;
लिये शक्ति
स्वरूपा
स्त्री की
सृष्टि कर
संतानोत्पतî=
1;ति
के लिये
स्त्री
जननाङ्ग का भ=
368;
निर्माण किय=
66;।=
=
[7=
]
प्रजापाति न=
75;
ऐसा इसलिये
किया ताकि
धर्म सम्मत
पवित्र मैथु=
44;
क्रिया के
द्वारा
सृष्टि का
विस्तार हो
सके। अत एव हम कह स=
325;ते
है कि
प्रजापति ही
आदि स्रष्टा
तथा विश्व
नियन्ता है। पुनः उसी
प्रजापति ने
प्रजा की
सृष्टि के पश=
381;चात्
कर्मों के
साधनभूत
यागादि की
रचना किया –
प्रजापतिर्ì=
1;
कर्माणि
ससृजे।=
[8=
]
महर=
;्षि
अरविन्द कहत=
75;
है कि भारतीय
संस्कृति यह
मानती है कि
आत्मा ही
हमारे सत्ता
का सत्य है और
हमारा जीवन
आत्मा की एक
अभिवृद्धि औ=
52; विकास
है वह सनातन
अनन्त, परम
एवं सर्व को
देखती है, वह इसे सब कुé=
1;
के निगूढ
सर्वोच्च
आत्मा के रूप
में देखती है
जिसे ईश्वर कहते हैं
और मनुष्य को
वह प्रकृतिग=
40;
परमात्मा की
इस सत्ता की
अंशभूत आत्म=
66;
एवं शक्ति के
रूप में देखत=
368;
है।<=
span
lang=3DHI style=3D'mso-bidi-font-size:11.0pt;font-family:"Mangal","serif";
mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-fo=
nt-family:
Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI'> इ=
60;
आत्मा की ओर
इस परमेश्वर, विराट, सनातन एवं
अनन्त की ओर
मनुष्य की
शान्त चेतना =
325;ो
प्राप्त होन=
66;, यही
भारतीय विचा=
52;
धारा के निकट
जीवन का गुढा=
352;्थ
है और यही
मानव जीवन का
लक्ष्य है।[9=
]
स्व=
;ामी
विवेकानन्द
ने अपने एक
भाषण में कहा- क्या भार=
340;
मर जायेगा ? तब तो संसार
की सारी
आध्यात्मिक
शक्ति का समू=
354;
नाश हो जायेग=
366;, धर्मों क=
375;
प्रति सारी
मधुर
सहानुभूति
नष्ट हो
जायेगी, सारी
भावुकता का
लोप हो जायेग=
366;
और उसके स्था=
344;
पर कामरूपी
देव एवं
विलासिता
रूपी देवी
राज्य करेगी। ध=
44;
उनका पुरोहि=
40;
होगा। प्रताडना, पाशविक ब=
354;
और
प्रतिद्वंदì=
7;ता
ये ही उनकी
पूजा पद्धति
होगी और मानव=
340;ा
उनकी बली
सामग्री हो
जायेगी। ऐसी
दुर्घटना कभ=
68;
भी हो सकती है=
span>।=
[1=
0]
धर्=
;म
शब्द अत्यन्=
40;
ही व्यापक
अर्थ वाला है, इससे
पदार्थ के
व्यापक गुण
विशेष
प्रकृति के आ=
343;ारभूत
नैतिक नियम, कर्तव्य, संस्कार, विधि-निषेध नीति=
-नियम, परमसत्ता
आदि विषय भी
अभिव्यक्त
होते हैं। धë=
2;्म
शब्द की
परिभाषाओं
एवं
व्याख्याओं
के संदर्भ मे=
306;
कहा गया है – ‘धार=
;णात्
धर्म इत्याह=
69;ः
धर्मो धारयत=
75;
प्रजाः’[1=
1]
अर्थात् जो
धारण करता है।
यहां धारण
करने से
तात्पर्य है
सम्पूर्ण
जगत् एवं
जागतिक नियम=
79;ं
एवं समाज (प्रजा) कì=
8;
एकता को
जीवन्त
स्वरूप देना
है।<=
span
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mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-fo=
nt-family:
Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI'>
अर्थात्
मनुष्य के उस =
2310;चार
– विचार को
धर्म कहते है=
306;
जिसके द्वार=
66;
इसका वैयक्त=
67;क
और सामाजिक
कल्याण होता
है, सुख बढता
है, एक
व्यवस्था
उत्पन्न होत=
68;
है।=
[1=
2]
मनुष्य मात्=
52;
तीस धर्मो के
लक्षणों को
मानव धर्म के
परिप्रेक्षî=
1;य
में उल्लेख
करते हुए श्र=
368;मद्भगवद्गी&=
#2340;ा
में कहा गया
है कि सत्य, दया, तê=
6;स्या, शौच, तितिक्षा, आत्म-निरीक्षण, बाह्य-इन्द्रियों
का संयम, अहिंसा, ब्रह्मचर्य<=
/span>, त्याग, स्वाध्याय<=
span
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nt-family:
Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-font-family:Mangal;
mso-bidi-theme-font:minor-bidi'>, सरलता, संतोष, सë=
0;दृष्टि, सेवा, दुराचार, से निवृत्ति=
, लोगों की
विपरीत
चेष्टाओं के
फल का अवलोकन, मौन, आत्मविचार<=
span
lang=3DBN style=3D'mso-bidi-font-size:11.0pt;font-family:"Mangal","serif";
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nt-family:
Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-font-family:Mangal;
mso-bidi-theme-font:minor-bidi'>, प्राणिय=
79;ं
को यथायोग्य =
309;न्नदानादि<=
span
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mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-fo=
nt-family:
Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-font-family:Mangal;
mso-bidi-theme-font:minor-bidi'>, समस्त
प्राणियों
में विशेष
करके
मनुष्यों मे=
06;
आत्मबुद्धि – इष्टदेव-बुद्धि, महात्मा=
23;ं
के आश्रयभूत
भगवान के गुण-नाम आदि
का श्रवण-कीर्तन, स्मरण, सí=
5;वा, यज्ञ, नमस्कार, दास्य, सè=
6;्य, आत्मनिव=
75;दन
ही श्रेष्ठ
धर्म है।[1=
3]
वही
मनुस्मृति म=
75;
धर्म के दस
लक्षणो का ही
उल्लेख मिलत=
66;
है –<=
span
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mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-fo=
nt-family:
Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI'>
धैर्य, कî=
1;षमा, शौच, इन्द्रिय
निग्रह, धी, बì=
9;द्धि, सत्य एवं
अक्रोध जो
वास्तव मे
विश्व मानव
धर्म की हर
कसौटी पर खरा
उतरता है।
वास=
;्तविक
धर्म वैयक्त=
67;क
एवं सामाजिक=
40;ा
दोनो से
संबद्ध होते
है।<=
span
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mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-fo=
nt-family:
Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI'> व=
61;
इन दोनो के
समन्वयकारी
आचरणात्मक
जीवन दर्शन क=
368;
नियामक शक्त=
67;
है जिससे मान=
357;
स्वभाव की
श्रेय एवं
प्रेय की अभि=
357;्यक्ति
को गति मिलती
है।<=
span
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mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-fo=
nt-family:
Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-font-family:Mangal;
mso-bidi-theme-font:minor-bidi'> वयक्ति क=
366;
सम्पूर्ण जीवन
एक अविच्छिन=
81;न
इकाई है। धë=
2;्म के द्वार=
366;
वयक्ति का
सम्पूर्ण
शक्तियों एव=
06; ज्ञान
का उपयोग कर एक ऐसे
पूर्ण और सहज =
2350;ानवोचित
जीवन पद्धति
के विकास पर
बल दिया जाता
है जो भौतिक
एवं मानसिक
शक्तियों के
रूप में जीव=
;न
के सर्वाङ्ग =
360;ुन्दर
विकास और समा=
332;
निर्माण में
उपयोगी होता
है।<=
span
style=3D'mso-bidi-font-size:11.0pt'>
समक=
;ालीन दार्शनि=
25;ों
के युग में
भारत दासता के यातना=
346;ूर्ण
जीवन जीने के
लिये विवश था।
सर्वत्र भूख, निर्धनत=
66;, अशिक्षा, कुसंस्क=
66;र का बोë=
4;बाला
था।<=
span
lang=3DHI style=3D'mso-bidi-font-size:11.0pt;font-family:"Mangal","serif";
mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-fo=
nt-family:
Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI'>
तत्कालीन यु=
27;
के मनीषि
चिन्तकों ने
अपने देश को
कालजयी=
शाश्वत
स्फ़ुर्तिदाë=
1;क
चिन्तन की
पृष्ठभूमि को
आधार बनाकार
राष्ट्रीय
एवं
आन्तर्राष्é=
5;्रीय
हितों की
रक्षा करते ह=
369;ए
समन्वित
चिन्तन का
अनुठा
मार्गदर्शन
करते हुए
मानववाद की
प्रतिष्ठा क=
68;।
अपनी
मानववादी
दृष्टि के
कारण स्वामी
दयानन्द ,रविन्द्रना&=
#2341;
ठाकुर, सî=
1;वामी
विवेकानन्द, स्वामी
रामतीर्थ तथ=
66;
महात्मा
गान्धी ने शि=
325;्षा
कि ऐसी
योजनायें
प्रस्तुत की जिनमे=
;ं
मनुष्य का
शारीरिक तथा
मानसिक व्यक=
81;तिगत
एवं सामाजिक, नैतिक और
धार्मिक
बहूमुखी विकास
हो सके तथा वह
सही अर्थ में
अपने को
सृष्टि के श्=
352;ेष्ठतम
प्राणी के रू=
346;
में प्रस्तु=
40;
कर सके।[14] =
&nb=
sp; =
भार=
;तीय
परम्परा को
केन्द्रित क=
52;
धर्म के विषय में विच=
;ार
किया जाय तो
अतः
मानवीय
मूल्यों की
भूमि पर
प्रतिष्ठित =
25;रने
के लिये न्या=
351;
को धर्म के
आश्रय की
आवश्यकता
पडती है। धर्म
साधन रूप में
नैतिकता तो ह=
376;
किन्तु यह ऐस=
368;
कठोर नैतिकत=
66;
नहीं है जिसम=
375;ं
मनुष्य के
अतिरिक्त
अन्य का विचा=
352;
संभव नहीं हो
इसी प्रकार
साध्य के रूप
में यह न्याय
है किन्तु
अन्तर्मानव
संबन्धों के
कठोर भित्ति
में बन्धा हु=
310;
न्याय न होकर
वह उदात्त
अवधारणा है ज=
379;
निःश्रेयस्
में प्रतिफल=
67;त
होती है। यह जड, चेतन, सî=
1;थावर, जङ्गम
सबके
संबन्धों मे=
06;
उचित विवेक
पूर्ण समत्व
का
प्रतिस्थापê=
4;
है।<=
span
lang=3DHI style=3D'mso-bidi-font-size:11.0pt;font-family:"Mangal","serif";
mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-fo=
nt-family:
Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI'>
धर्म की
दृष्टि में स=
350;
का अर्थ
बराबरी नहीं
है, अनुकूलत=
66;
है अर्थात् ज=
379;
सबके अनुकूल
है।<=
span
lang=3DHI style=3D'mso-bidi-font-size:11.0pt;font-family:"Mangal","serif";
mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-fo=
nt-family:
Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI'>
मानव और
प्रकृति, मानव और पशु, मानव और
मानव इन सबके
बीच अलग-अलग और एक साê=
1;
यथावत और
सामञ्जस्यपí=
0;र्ण
जीवन-वì=
7;धि
को निर्धारि=
40;
करता है, वही धर्म
है, उसी के
आधार पर
अभ्युदय एवं
निःश्रेयस
दोनों ही
सम्भव है।
समा=
;ज
दर्शन के
क्षेत्र में
मानववाद
वैदिक काल से
समकालीन युग
तक व्यक्ति औ=
352;
समाज की सर्व=
366;ङ्गीन
प्रगति को ही
अपना
सर्वोच्च
लक्ष्य स्वी=
25;ार
करता है। एकात्म
मानववाद
व्यक्तिगत
सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, राष्ट्र=
68;य
तथा
अन्तर्राष्é=
5;्रीय
सभी क्षेत्र=
79;ं
में मनुष्य क=
368;
सर्वाङ्गीण
प्रगति को
अपना लक्ष्य
मानता है। भारत के
विश्वबन्धुê=
0;्व
तथा वसुधैव
कुटुम्बकम क=
75;
आदर्श इसी
सामाजिक
लक्ष्य की
पुष्टि करते
हैं। आर्थिक
क्षेत्र में
यह आदर्श उत्=
346;ादक
एवं उपभोक्त=
66;
के हितों का
समन्वय करता
है।<=
span
style=3D'mso-bidi-font-size:11.0pt'>
महा=
;त्मा
गान्धी ने कह=
366;
था “ =
मí=
6;ं
हिन्दुत्व क=
79;
सत्य धर्म
मानता हूं
परन्तु इस्ल=
66;म
तथा ईसाइयत भ=
368;
सत्य के धर्म
हैं। आपके
दृष्टिकोण स=
75;
ईसाइयत सत्य
हैं। मेरे
दृष्टिकोण स=
75;
हिदुत्व सत्=
51;
है।<=
span
lang=3DHI style=3D'mso-bidi-font-size:11.0pt;font-family:"Mangal","serif";
mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-fo=
nt-family:
Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI'>
सभी धर्मों क=
366;
सार एक है
केवल उनका
दृष्टिकोण ह=
68;
भिन्न हैं।
ऋग्वेद में
कहा गया कि
जिस तरह देवग=
339;
स्व-मë=
2;्यादा
तथा तदनुरूप
कर्तव्यों क=
79;
जानकर उपासन=
66;
करते है, समीप रहकर
कार्य करते ह=
376;, उसी
प्रकार
मनुष्य भी
समीप रहकर, समान गति करे=
;, समान बोल=
375;
अर्थात्
उन्नति का
प्रयत्न करे, भेद-भाव विमूख
होते हुये एक
मन, बुद्धिव=
66;ले
बने। परस्पर समान
ढंग से मनोगत
भावों को
जानने का प्र=
351;ास
करें। व्यक्तिगत
विचारों को
सर्वोपरि
समझकर दूसरे
के लिये
कष्टदायक न
बने। प्रत्येक
कार्यों को
अनुशासनपूरî=
1;वक
करे। इस आशय का
मन्त्र
अधोलिखित है –
<=
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nt-family:
Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-font-family:Mangal;
mso-bidi-theme-font:minor-bidi'>  =
; सæ=
6;गच्छध्वं
संवदध्वं सं
वो मनान्सि
जानताम्।
<=
span
lang=3DBN style=3D'mso-bidi-font-size:11.0pt;font-family:"Mangal","serif";
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nt-family:
Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-font-family:Mangal;
mso-bidi-theme-font:minor-bidi'>  =
; दí=
5;वा
भागं
यथा पूर्वे
संजनानाम्
उपासते ।।[1=
5]
पुन=
;ः
वेद का उपदेश
प्राप्त होत=
66;
है- तुम सबके
विचार, सæ=
6;घटन, मन और चित
समान हो, यज्ञ में
सबके साथ हवि
डालो, तì=
9;म
सबका
अभिप्राय
समान हो, हृदय समान हो=
;, मन समान
हो, जिससे तु=
350;
अच्छी प्रका=
52;
से रह सको। मन्त्र
अधोलिखित है-
&=
nbsp; सë=
0;ानो
मन्त्रः
समिति समानी
समानं मन: सह
चित्तमेतेषì=
6;म्।
&=
nbsp; सë=
0;ानं
मन्त्रमभिमê=
4;्त्रये
वः समा=
;नेन
वो
हविषा=
जुहोमि।।
&=
nbsp; समानीव
आकूतिः समान=
66;
हृदयानि वः।
&=
nbsp; समानमस्=
40;ु
वो मनो यथा वः
सुहासति।।[1=
6]  =
;
&=
nbsp; ईë=
8;ा
वास्यमिदं
सर्वं &=
nbsp;
यत्किञ्च
जगत्यां जगत=
81;।
&=
nbsp; तí=
5;न
त्यक्तेन
भुञ्जीथा मा
गृध:
कस्यस्विद्ê=
3;नम्।।=
[1=
7]
<=
span
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nt-family:
Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-font-family:Mangal;
mso-bidi-theme-font:minor-bidi'>  =
; अë=
2;्थात्
हे मानव ! इस विशाल
परिवर्तनशीë=
4;
विश्व में जो
कुछ भी गê=
0;िविधि
है, उस सब पर
परम पì=
7;ता
परमेश्वर का
नियन्त्रण ह=
76;, वरदानस्=
57;रुप
हमें प्राप्=
40;
हुआ है। जिसपर समस्त
प्राणियों क=
75;
अपने –<=
span
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nt-family:
Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI'>
अपने भाग है
अतः दूसरे के
हिस्से पर
लालच मत करो
मेर=
;े
विचार से
धर्मों में
व्यष्टि से
परमेष्टि तक
की इकाईया
खण्ड-खé=
9;्ड
रूप में न
होकर परस्पर
अविच्छिन्न
एवं पूरक है
सम्=
;पूर्ण
समाज के समस्=
340;
उत्तम गुणों
का प्रतिनिध=
67;त्व
करने वाले
एकात्म मानव
का स्वरुप स्=
357;तः
प्राप्त करन=
75;
का आग्रह करन=
366;
चाहिये। हमें ऐसा
प्रयत्न करन=
66;
चाहिये कि
जिससे सामुह=
67;क
चेतनायुक्त
जीवन पुनः
निर्मित हो
तथा कर्मशील
सामुहिक
परिणामवाद क=
75;
संबन्ध में
आशन्कित हुआ
मानव ‘<=
span
lang=3DHI style=3D'mso-bidi-font-size:11.0pt;font-family:"Mangal","serif";
mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-fo=
nt-family:
Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI'>दí=
5;वयन्तः
नरः’ =
कì=
6;
चरित्र
समाजरुप मे
प्रकट करता
हुआ दिखाई दे।
हमारा यह
उत्तरदायितî=
1;व
है कि समाज मे <=
/span>‘मैं एक
विन्दु, परिपूर्ण
सिन्धु है यह
सारा मानव
समाज’ =
जí=
6;सा
यथार्थ चित्=
52;
उपस्थित करत=
75;
हुये अपने चर=
367;त्र
अर्थात्
आदर्श
व्यवहार
द्वारा सम्प=
70;र्ण
विश्व को
शिक्षित
करें।[19]
आज
धार्मिक
विश्वास का
वास्तविक
स्वरुप एवं उ=
360;के
व्यावहारिक
पक्ष को जानने=
;, समझने की
आवश्यकता है।
धर्म में निह=
367;त
मानववाद को
सामने ध्येय
के रूप में
रखने के लिये
आज आवश्यकता
इस बात की है-
ख.
आज के इस
वैश्वीकरण क=
75;
युग में
धार्मिक संक=
68;र्णता
का समूल नाश
हो, व्यष्टि
से समष्टि की
यात्रा
प्रत्येक
मानव के
द्वारा
प्रारम्भ हो।
ग.
मानव से
मानव के मन का
जुडाव हो, मेल, पî=
1;रीति
एवं सौहार्द
हो।<=
span
style=3D'mso-bidi-font-size:11.0pt'>
घ.
व्यावहा=
52;िक
वेदान्त
अध्ययन-अध्यापन का
विषय बने।
ङ.
धार्मिक
विश्वास
उन्माद का रू=
346;
न ले सके, सरकार एवं
राजनेता विश=
75;ष
ध्यान रखे।
च.
धर्मनेत=
66;ओं
से सरकारे
समान दूरी
बनाकर रखे।
छ.
जैसा कि
हम सब जानते
हैं, हë=
2;
धर्मावलंबी
अपनी-अê=
6;नी
मान्यताओं क=
79;
लेकर कभी-कभी मिथ्या
अहंकार
प्रदर्शित
करते हैं जो
टकराव का
मूख्य कारण
होता है।
ज.
विपरीत
विचारों के
प्रति भी आदर
भाव रखना आवश=
381;यक
है।<=
span
style=3D'mso-bidi-font-size:11.0pt'>
=
धë=
2;्म
हमें सीखाता
है कि मनुष्य
प्रकृति से ह=
368;
उत्पन्न हुआ
है, विकसित
हुआ है एवं
उसी का अङ्ग
है।<=
span
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mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-fo=
nt-family:
Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI'>
भारतीय
मानववादी
संस्कृति यह
स्वीकार करत=
68; है
कि मानव स्वय=
306;
स्वतन्त्र
एवं रचनात्म=
25;
चिन्तन तथा
क्रिया के
द्वारा अपनी
समस्याओ के
समाधान में
समर्थ है। उसका
लक्ष्य इसी
जीवन में व्य=
325;्तिगत, राष्ट्र=
68;य, अन्तारा=
59;्ट्रीय
तथा
आध्यात्मिक
प्रगति प्रा=
46;्त
करना है। इस क्रम
में व्यक्ति
और परिवार, परिवार तथा
राष्ट्र, राष्ट्र एवं
मानवता और
अन्त में
मानवता तथा
प्रकृति का
कल्याण परस्=
46;र
पूरक हैं
क्योकि
मानववाद
सर्वाङ्गीण =
57;िकास
की अवधारणा ह=
376;।=
[2=
0] सर्वजन
हिताय सर्वज=
44;
सुखाय की
भावना से ग्र=
360;ित
हमारे मनीषि
उद्घोष करते
हैं-
&=
nbsp; सë=
2;्वे
भवन्तु
सुखिनः सर्=
;वे
सन्तु
निरामयाः।
&=
nbsp; सë=
2;्वे
भद्राणि
पश्यन्तु मा
कश्चित् दु:खभाग्
भवेत्।।
<=
span
lang=3DBN style=3D'mso-bidi-font-size:11.0pt;font-family:"Mangal","serif";
mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-fo=
nt-family:
Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-font-family:Mangal;
mso-bidi-theme-font:minor-bidi'>
संद=
;र्भ
सूची
<=
![if !supportFootnotes]>[1=
] ऋगवेद, 10/121/1 ; यजुर्वे=
42;, (वì=
6;. सæ=
6;.), 13/4, 23/1, 25/10 ; अथर्ववे=
42;, 4/2/7
<=
![if !supportFootnotes]>[2=
] विष्णुप=
69;राण, 6/5/86
<=
![if !supportFootnotes]>[3=
] श्रीमद्=
49;गवद्गीता, 15/17
<=
![if !supportFootnotes]>[4=
] श्रीमद्=
49;गवद्गीता, 18/61
<=
![if !supportFootnotes]>[5=
] श्व=
375;ताश्वतर
उपनिषद, 4/2
<=
![if !supportFootnotes]>[6=
] वही, शì=
6;ंकरभाष्य
<=
![if !supportFootnotes]>[7=
] बृहदारण=
81;यक
उपनिषद्, 6/4/2
<=
![if !supportFootnotes]>[8=
] वही, 1/5/14
<=
![if !supportFootnotes]>[9=
] अरविन्द, भì=
6;रतीय
संस्कृति के
आधार, पृ. सæ=
6;. – 189
[1=
0] विवेकान=
44;्द
साहित्य, खé=
9;्ड-9 , पí=
1;. सæ=
6;. – 377
[1=
1] महाभारत, कë=
2;्ण
पर्व, 58/69
[1=
2] सत्यभक्=
40;
स्वामी, सê=
0;्यामृत
–
दृष्टिकाण्é=
7;, पí=
1;. सæ=
6;. – 135-136
[1=
3] श्रीमद्=
49;ागवत
पुराण, 7/11/8-11
[1=
4] परामर्श (हì=
7;न्दी), खé=
9;्ड
21, अङ्क 4, सì=
7;तम्बर-नë=
7;म्बर, 2000, पुणे
विश्वविद्यì=
6;लय
प्रकाशन, पí=
1;.सæ=
6;.- 67
[1=
5] ऋग्वेद, 10/191/2
[1=
6] ऋग्वेद, 10/191/3-4
[1=
7] यजुर्वे=
42;, 40/1
=
[18]<=
span
lang=3DHI style=3D'font-size:12.0pt;font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-=
font-family:
Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;
mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI'>अरव=
;िन्द, मì=
1;र्षि, दì=
7;व्य
जीवन, पृ. सæ=
6;. – 220
[1=
9] आप्टे
उमाकान्त
केशव, भार=
;तीय
समाज चिन्तन, जì=
6;गृति
प्रकाशन, नí=
9;एडा, 1990, पृ.-49
[2=
0] परामर्श (हì=
7;न्दी), खé=
9;्ड
21, अङ्क 4, सì=
7;तम्बर-नë=
7;म्बर, 2000, पुणे
विश्वविद्यì=
6;लय
प्रकाशन, पí=
1;.सæ=
6;. – 66